Saturday, May 7, 2016

मुझ नातवाँ के बारें में

एक दिन फिर बात करते-करते वह अचानक बोल उठी
अच्छा छोड़ो ये किताब, ये कविता
मेरी बात सुनो तुमनें कभी ये सोचा
तुमसे दूर जब मैं अपने घर में अकेली होती हूँ
देख पाने की तो छोड़ो तुमसे बात तक नही कर पाती हूँ
तब मैं घर में अकेली पड़ी-पड़ी क्या सोचती हूँ तुम्हारे बारें में

एक बार फिर अपनें हाथों सिर दबाते हुए मैं बोला
अच्छा थोड़ी सांस लेने दो बताता हूँ
मुझसे दूर रहते हुए तुम क्या सोचती हो मेरे बारे में
हूँ शायद तुम यह सोचती हो मेरे बारें में
घर में दरवाज़े पर भीतर से कुंडी की तरह चढ़ी हूँ
और इधर वो पट्ठा किसी चौराहे पर
किसी गोल गप्पे के ठेले की तरह आती-जाती
छप्पन छुरियों को लुभा रहा होगा या तय हो गया होगा
तो शाम को नमकीन-सिगरेट के साथ
दोस्तों के बीच बोतल की तरह खुलने के
स्वप्न बुन रहा होगा कहीं बैठा-बैठा
कुछ नहीं रात को लौटेगा पीकर फिर फोन की
घंटियां पर घंटियां बजाएगा लुच्चा कहीं का

हूँ ठीक है और बताओं और क्या सोचती हूँ तुम्हारे बारें में
और क्या ये क्या सोचती होगी यही कि
पुरुष की जात तो वैसे भी कुत्ते की होती है
कहीं और भी तो नही उलझा जैसे मुझसे बनाता है
उससे भी बना रहा हो बातें
या फिर घर में ही चिपका पड़ा हो अपनी उस नापसंद से
साला जब घर में होता है कितना सीधा बनकर रहता है
जब इतना ही डरता है उससे तो मुझसे बोलता क्यों है
अकेले उसके ही पैर क्यों नही दबाता

वह ठहाका लगाते हुए बोली हां और
कुछ नहीं और क्या सोचती होगी, सोचती होगी घर में
हमेशा ही तरह खा रहा होगा उसके जूते
और मिलने पर जब मैं पूछूंगी तो सीधा बनते हुए कहेगा
नही यार ऐसी कोई बात नही

सिर्फ खराब ही क्यों अच्छा भी तो सोचती होऊंगी?
मैं तुम्हारे बारे में ज़रा वो भी तो बताओ,
मैं बोला अच्छा तो,शायद फिर ये सोचती होगी,नही यार
मेरा जानू बिलकुल भी ऐसा नही है
वो कहीं कुछ पढ़ रहा होगा या निपटा रहा होगा घर के काम
या टीवी देखतें हुए मुझे याद कर रहा होगा
या अलमारी के आगे खड़ा होकर मुझसे मिलनें
पहनकर आने वाली ड्रेस तय कर रहा होगा
या अकेले में अपने कमरे में मुझे उधेड़बुन रहा होगा
कहीं हताश होकर मुझे भूलनें की तो नही सोचने लगा
बहुत देर से कोई एसएमएस भी नही आया उसका
ऐसा ही सोचती हो न तुम मेरे बारे में

वह फिर जोर से हंसी लेकिन इस हंसी में
मैंने गेहूँ में कंकर सी उसकी उदासी पिसी देखी
वह बोली मैं तुमसे झूठ नही बोलूंगी अभी तुमनें जो भी कहा है
मैं यह सब सोचती हूँ मगर एक बात और जो मैं सोचती हूँ
जो मुझे रन्दे-सी लगातार छीलती रहती है भीतर से
वो तुम क्यों नही बता रहे हो मुझे
उसे क्यों छुपा रहे हो, क्यों चुरा रहे हो नज़रें

कहो और हमेशा की तरह अपनी आँखों में आँसू भरकर कहो
कहो कि जब मैं तुमसे दूर होती हूँ,
इन सब बातों से ज्यादा ये बात और भी बेचैनी से सोचती हूँ
काश, तुम शादी-शुदा नहीं होते !

पवन करण
(अस्पताल के बाहर टेलीफोन काव्य संग्रह से)

Saturday, January 18, 2014

पैसे के बारे मे एक महत्वकांक्षी कविता के लिए नोट्स



पैसे के बारे मे एक महत्वकांक्षी कविता के लिए नोट्स



मै पैसे नही कमाता
जब बहुत खुश होता हूं, तब भी
कोई योजना नहीं बनाता
बस तृप्ति जी के पास जा कर कुछ शुरुआती बातें करता हूं

पैसे कमाना एक एक अद्भुत बात है
न कमाना उससे भी ज्यादा
आप अगर पैसे नही कमाते
तो यह कुछ-कुछ ऐसा है
कि आप जेम्स वाट है
और रेल का इंजन नही बना रहे
यह दुनिया से विश्वासघात जैसी कोई चीज़ है

अक्सर नहीं,
लगभग हमेशा मैं पैसों के बारें मे सोचता हूं
इस सोचने में और भी कई चीजें साथ-साथ सोची जाती रहती हैं
मसलन, पैसे न कमाना
या थोडे से पैसे कमाना और उन्हे खाने बैठ जाना- आगे और न कमाना;
पुराने, जिनका शरीर आदी है, ऐसे कपडे पहन कर किसी पुरानी, जो होते-होते
घर जैसी हो गई है, ऐसी सार्वजनिक जगह पर निकल जाना
एक शहर मे बरसों रहते हुए भी राशन कार्ड न बनवाना, फोन न लगवाना;
सालों पुराने दोस्तों से बार-बार ऐसे मिलना ज्यों आज ही मिले हैं
और यूं विदा होना ज्यों  मिलना बाकी रह गया हो;
औरतों को देखकर सिमट जाना-खुलेआम जनाना होना ;
हिंसा का उचक-उचक कर प्रदर्शन न करना- मर्दानगी पर शर्म खाना ;
अश्लील चुटकुलों पर खिसिया जाना, उनका फेमिनिस्ट विश्लेषण करना ;
राजनीति वालों पर, उनके घोटालों पर बहस न करना;
गंभीर, उलट-पलट कर देने वाली मुद्राओं पर ठठा कर हंस पडना;
और खूबसूरत कमाऊ आदमी के पाद पर आनंदित हो उठना
लगता है, ये सारी चीजें एक साथ होती हैं
पैसे न कमान इन सबसे मिल कर बनता है
कभी कभी यूं भी सोचता हूं
कि बस पैसे कमाना एक काम रहता तो कितना सुख होता
चलते-चलते अचानक भय से न घिर जाते
चौराहों पर खडे रास्ते ही न पूछते रहते
अपने साथ लंबी-लंबी बैठकों में अपने ही ऊपर मुकदमे न चलाते
अच्छे-बुरे और सही-गलत की माथा पच्ची न होती
कैसे भी बनिए के साथ ठाठ से रह लेते- यूं मिनट-मिनट सिहर न उठते
सुंदर लडकियों के लिए सडकों और पार्कों की खाक न छानते फिरते
झोपडपट्टियों में झांक-झांक कर्फ न देखते, कि क्या चल रहा है
बडे नितंब वाले मर्दो को देख बेकली न होती-
फसक्कडा मार कहीं भी बैठ जाते
और मजे से गोश्त के फूलने का इंतजार करते
दुनिया मे पायदारी आती
और धन्नो का पांव धमक-धमक उठता
एक दिन देखा कि सारे विचार और सारी धाराएं
तमाम मान उद्देश्य और सारे मुक्तकारी दर्शन
दिल्ली के बॉर्डर पर खडे हैं
यूं कि जैसे ढेर सारे बिहारी और पहाडी और अगडम-सगडम मद्रासी
हाजत की फरागत मे पैसा-पैसा बतियातें हों

तब तो जिगर को मुट्ठी में कस कर सोचा,
कि शुरु से ही पैसा कमाने मे लग जाते
आज इस सीन से भी बचते

लेकिन हाय, सोचने से पैसे को कुछ नही होता
न वह बनता है, न बिगडता है
कितने ही सोचते बैठे रहे और सोचते-सोचते ही उठ कर चले गए
हमारे पूज्य पिता जी के पूज्य पिता जी कहा करते थे
कि उनके पूज्य पिता जी ने उन्हें बताया था
कि पैसे को एक बेकली चाहिए
जैसी लैला के लिए मजनूं और शीरीं जे लिए फरहाद को थी
लेकिन इधर हमारे छोटू ने बताना शुरु किया है कि नहीं
इसके लिए, जैसा कि शिव खेडा
और दीपक चोपडा बताते हैं- मन और आत्मा की शांति चाहिए
और उसमे योगा बहुत मुफीद है
उसका कहना है
सोचना पैसे को रुकावट देता है
और इस रुकावट के लिए आपको खेद होना चाहिए
क्योंकि आप अगर सोचने से खारिज हो जाएं
तो फिर सारा सोचना पैसा खुद ही कर ले
कि उसके घर सोचने की एक स्वचलित मशीन है

और पीढियों के इस टकराव में- जिसमें मेरी कोई ‘से’ नहीं
इधर कुछ ऐसा भी सुनने मे आया है
कि जिनके पास पैसा है, दरअसल उनके पास इतना पैसा है
कि कुछ दिनों बाद वे उसे बांटते फिरेंगे
कि जिस तरह आज हम गैर-पैसा लोग
अपनी बहानेबाजियों और चकमों-चालाकियों से
दुनिया की नाक में दम रखते हैं
उसी तरह  वे जरा-जरा सी बात पर
बेसिर-पैर के बहानों के सहारे
बोरा-बोरा भर पैसा आपके ऊपर पटक भाग जाया करेंगे
कि जिस तरह हमारे चोर पैसे की बेकली में रात-दिन मारे-मारे फिरते हैं
उसी तरह से वे चोरी-चोरी आएंगे और
आपकी रसाई में पैसे फेंक कर गायब हो जाएंगे
मै कहता हूँ कि हाय, तब तो पैसे कमाना कोई काम ही न होगा
तो वे बताते हैं कि नहीं भाया
तब हमें खर्च करने मे जुटना होगा
और उसके लिए भी वैसी ही बेकली चाहिए
जैसी मजनूं को लैला के लिए और फरहाद को शीरीं के लिए थी

( और हां, जिस दिन मैं यह कविता पूरी लिखूंगा
अपने पिता के बारे में भी लिखूंगा  जिनका न जाने
कितना तो कर्ज़ मुझे ही चुकता करना है! )

चेतन क्रांति  

Saturday, April 28, 2012

पवन करण की कुछ कविताएं...

तुमसे नहीं, तो मैं अपने मन की किससे कहूँ
किन्हें सुनाऊँ अपना रोना, क्या उन्हें जो मुझे
बस पूजना जानते हैं, पहचानना नहीं
पता नहीं मुझे रोता देख वे क्या समझ बैठें
शुरू कर दें अपने ही जैसों का कत्लेआम,
और कहें, कैसे ईश्वर हो,
ईश्वर की भी कोई व्यथा होती है

व्यथा हमारी होती है तुम्हारा काम
व्यथा सुनना है, सुनाना नहीं
ईश्वर हो तो ईश्वर की तरह रहो
हम तुमसे इतनी उम्मीद लगाए बैठे हैं
तुम हो कि हमारी तरह हुए जा रहे हो
इधर मुझे तुमने भी अपने बीच बैठाना
बंद कर दिया, दोस्त की शक़्ल में
मेरी शक़्ल भूल ही गए तुम
तुम भूल गए हमारे बीच हमेशा
एक ग्लास मेरा भी भरा जाता था
ये भी कि मैं धीरे-धीरे सबसे ज्यादा
चिखना चर जाता था, मुझसे बचाने
जिसे रख लेते थे तुम उठाकर, जो तुम्हें
कई बार पड़ता था दोबारा मंगाना

तुम्हें लगता होगा, मैं ईश्वर हूँ मुझे क्या कमी
मगर ईश्वर होकर भी मेरी हालत
उतनी ही ख़राब है जितनी तब,
जब मेरा खर्च उठाया करते थे सब
खर्च उठाने में अपना, मैं आज भी सक्षम नहीं,
तुम सोचते होगे, या तो मैं तुम्हें
भूल गया, या तुमसे मिलता नहीं
मगर ऐसा नहीं कतई, ईश्वर होकर
मैं तो अपना चेहरा ही भूल गया
आँख बचाकर तुम सबके बीच आया हूँ
तो खुद को याद आ रहा हूँ कुछ-कुछ
इस बीच तुमने भी नहीं पूछा आकर,

कैसा हूँ मैं ईश्वर होकर तुमने सोचा,
अब मुझे क्या ज़रूरत तुम्हारी? मगर
ईश्वर होना दोस्त होने से बेहतर नहीं
कोई ईश्वर, दोस्त से बड़ा नहीं हो सकता
ईश्वर किसी का दोस्त भी नहीं हुआ कभी,
ईश्वर के लिये किसी को याद रख पाना
संभव नहीं अब, भीड़ इतनी है उसके पास
बड़े से बड़ा ईश्वर भी नहीं पहचान सकता
उसका दुश्मन कौन है ओैर दोस्त कौन
उसे अब सब चेहरे एक से नजर आते हैं,
आज तो हुआ यह मैं रहता हूँ जहाँ
उसके पीछे मुझे कुछ आहट दी सुनाई
मैंने देखा तो मुझे अपने ही जैसे
कुछ दोस्त दिखे पैग बनाते, मस्ताते
और एक दूसरे को गालियाँ सुनाते

तुम तक मुझे उन्हीं ने पहुँचाया, वे हमें
अच्छी तरह थे पहचानते, हो सकता है
उनके साथ बैठकर पी हो हमने कभी
उन्होंने यह भी बताया उनका एक दोस्त
और भी था, जो अब ईश्वर हो गया है,
लेकिन वह उनके लिये कुछ करता नहीं
इतना भी नहीं, वह उनके लिये दारू की
कुछ बोतलें ही भिजवा दिया करे
उसके लिये कौन सी बड़ी बात है, ईश्वर है
मैं समझ गया वे मेरी बात कर रहे थे
(2)
चलो यार, अब मुझे ऐसे गुस्से में मत देखो
मेरा पैग बनाओ, फिर मुझे मारो-पीटो
जो चाहे करो तुम्हारी मर्जी, ईश्वर के लिये
दोस्तों के हाथों पिटने से अच्छा कुछ
हो नहीं सकता, पुजते-पुजते थक गया हूँ
अरे अब तुम्हारे बीच आया हूँ तो क्या
ईश्वर की तरह आऊँगा, दोस्त हूँ

और फिर मेरा ईश्वर की तरह
आने का फायदा क्या
जब मेरे हाथ मैं तो कुछ नहीं, वहां से,
जहाँ रहने लगा हूँ मैं मुझे कुछ भी लाने की
इजाजत नहीं, वह जो वहाँ है सब वहीं
रहता है, हिलता-डुलता नहीं, मैं भी
मैं इधर-उधर होउंगा तो मुझे और मजबूती से
गाड़ दिया जायेगा ज़मीन में, सिर पर तान
दिया जाएगा मेरे और भी बड़ा छत्तर
हाथों में थमा दिये जायेंगे और भी
बड़े-बड़े हथियार, सब बेकार

यह भी हो सकता है मेरे वहाँ से
कुछ ले आने की सजा भुगते कोई और
और मैं किसी से कह भी न पाऊँ
कि यह तो किया धरा मेरा, कोई मानेगा भी नहीं
मैं वहाँ से ले जा सकता कुछ कहीं और
पत्थर में रहते-रहते मैं भी पत्थर हो गया हूँ
पत्थर की आँख, पत्थर के कान
पत्थर की जीभ और पत्थर के हाथ
पत्थर का ईश्वर या तुम मुझे ईश्वर एक पत्थर
या बस पत्थर कह सकते हो
पत्थर कहा भी जाता रहा हूँ


मैं हँसता हूँ भीड़ ने मुझे लेकर कैसे-कैसे
भ्रम पाल रखे हैं, मैं सब कर सकता हूँ
मैं ही सब करता हूँ, संसार में जो कुछ भी
चल रहा है उस में मेरा ही हाथ है
सुख-दुख के पीछे मैं ही हूँ, मैं देने पर
उतर आऊँ तो किसी की दुनिया बदल दूँ,
तुम देखो, ईश्वर होने के बाद भी तुमको
एक बोतल दारू तो पिला नहीं सकता
दुनिया की क़िस्मत क्या ख़ाक बदलूँगा

अच्छा, मैं तुमसे झूठ बोल रहा हूँ, चलो
सब मिलकर तलाशी लो और मेरी जेब से
एक पैसा तो निकालकर दिखाओ
ऐसा भी नहीं कि मैं यहाँ आने से पहले
सब कुछ वहाँ रख आया होऊँ
वहाँ सब मेरे नाम पर ज़रूर है, मगर
मेरे लिए कुछ भी नहीं, वहाँ न मेरी
अलमारी जिसमें लगा देता होऊँ ताला
न हीं किसी बैंक में मेरे दस्तख़त से
चलने वाला कोई खाता, ऐसा मैं ईश्वर

झूठ बोलते हैं जो यह कहते हैं ईश्वर
सबसे शक्तिशाली है, सबसे धनवान है
सबसे दयालु है, सबसे बड़ा दाता है
मेरे शक्तिवान होने की पोल तो यह है-
हवा से मेरी धोती की गाँठ खुल जाये
तो मैं ख़ुद नहीं बाँध सकता उसे भी
धनवान होना तो मेरा तुम देख ही रहे हो
बिना शक्ति और धन के काहे की दया
और काहे का दान, सच कहूँ तो किसी
ईश्वर के पास यह दोनों नहीं,
सब के सब मेरे जैसे हैं, फटीचर
क़िस्मत वाले हो तुम तीनों जो मेरी तरह
ईश्वर नहीं हुए, मेरी जगह तुम में से कोई
ईश्वर हो गया होता, मेरी तरह रो रहा होता
ईश्वर होने से बुरा कुछ हो नहीं सकता
ईश्वर होने से बड़ा कोई अपराध नहीं
(3)
तुम तीनों आज कम पीना या और मँगाना
मेरे लिए, बहुत दिनों से पी नहीं मैने
आज मैं छककर पिऊँगा, लुढ़कने तक

तुम्हें क्या लगता है वे जो कहते हैं
उनके पास जो भी है सब मेरा दिया हुआ है

वे सच कहते हैं, नहीं, वे झूठ बोलते हैं
मैंने उन्हें कुछ नहीं दिया, किसी ईश्वर के पास
कुछ है ही नहीं, तो वो देगा कहां से
जिसे वे मेरा दिया कहते हैं, वो सब
तो उन्होंने तुमसे छीना है, तुम्हारी जिंदगी से
तुम्हारी ज़िंदगी उन्होंने ही चुराई है,
जब मैंने ही उन्हें दिया है तो उसमें
उनकी क्या ग़लती, अब तुम भी मांगों
बैठे रहो हाथ जोडे़, मिलना कुछ नहीं,

मैं खुद तुम्हारे आगे हाथ पसारे बैठा हूँ
घंटों वे भले ही बैठे रहते हों मेरे आगे,
मुझे दिखाई दे तब न, बजाते रहें घंटियाँ
मुझे कुछ सुनाई तो देता नहीं,
जब सांसे हीं नहीं चलतीं मेरीं, कैसी भी
बत्तियाँ जला लें, पहना लें मुझे कैसे भी
फूलों की माला क्या फर्क पड़ता है मुझे
अब छप्पन भोग, मैं पत्थर क्या खाऊँगा,

जिसे उन्होंने छीना है तुमसे, जिसे वो
मेरा दिया बताते हैं, उसका बहुत हिस्सा
उन्होंने मढ़ दिया है मेरे भी सिर
अब मैं हिल डुल तो सकता नहीं
उन्हें मना क्या खाकर करूँगा, उन्होंने
बेईमानी में अपनी मिला लिया है मुझे भी
जब से हूँ, मैं उन्हीं के कब्जे मैं हूँ
उन्हीं का ईश्वर हूँ, किसी काम का
न होते हुए भी उनके बड़े काम का हूँ

जो उन्होनें छीन लिया है तुमसे, सोचता हूँ
उसे तुम वापस क्यों नहीं लेते उनसे
अपनी ज़िंदगियां वापस लेने के लिए
लड़ते क्यों नहीं उनसे, न देने पर जब तक
वे मर नहीं जाते मारते क्यों नहीं उन्हें,
मारते हुए उन्हें मरते क्यों नहीं लड़कर
मुझे उखाड़कर दे क्यों नहीं मारते उनके सिर पर
ईश्वर होने से तो रहा कम से कम
अब मेरा पत्थर होना तो सार्थक हो जाए

दुख तो यह है इसके लिये तुम सब भी
मेरे भरोसे बैठे हो जबकि नहीं कर सकता
मैं कुछ भी, मैं अपनी नाक पर बैठी मक्खी
तो उड़ा नहीं पाता, उन्हें दण्ड क्या दूँगा
अरे मैं किसी लायक ही होता
तो ख़ुद को उनका बंधक होने देता
उन्हें अपने नाम पर खाने-कमाने देता
गर्दन पकड़कर नहीं मोड़ देता सबकी
हाँ, हाँ मैं ठीक कह रहा हूँ, अपने ग्लास
जल्दी खाली करो, या मेरा ग्लास भरो,

आज मुझे उसी ढाबे पर रोटी खिलाने
ले चलना जहाँ एक बार लड़ते हुए हमें
पुलिस ने पकड़ लिया था, फिर देर रात
गिड़गिड़ाने और जेबें खाली कराने के बाद
छोड़ा हमें, मुझ में तो उन्होनें दो-चार
बेंत भी जमा दिए, कारण एक तो अपुन
उस रोज़ भी नंगे थे और ऊपर से उनसे
जुबान लड़ाए चले जा रहे थे, सो अलग

लड़ना तो तुम्हें ही होगी अपनी लड़ाई,
तुम उसे उनके साथ-साथ मुझे भी
चुनौती देते हुए लड़ो, लड़ो और तोड़ दो
यह भ्रम करने वाला भी मैं हूँ ही,
रचने वाला भी मैं ही हूँ
देने वाला भी मैं ही हूँ , यह कि
मेरी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता,
और पत्ते, अपनी मर्जी से कहाँ-कहाँ
हिलते-डुलते और उड़ते-फिरते हैं
(5)
अच्छा ये बताओ तुम्हारे अलावा ये बात
किस-किस को पता है कि मैं दलित हूँ
और अब ईश्वर हो गया हूँ ,

क्या मेरी उसे पता है जिसे पाने के लिए
मैंने कितने पापड़ नहीं बेले, अंत में
इसी वज़ह से उसे गँवाना पड़ा मुझे,
शुरू-शुरू में जब मैं ईश्वर हुआ नया
वह एक दो बार आई भी मुझे पूजने
तब तक तो ठीक से ईश्वर में चेहरा
तब्दील भी नहीं हुआ था मेरा, मैंने चाहा
कम-से-कम एक बार तो मुझे देख ले
उसने आँख उठाकर देखा तक नहीं
सिर झुकाए हाथ जोड़े खड़ी रही
सिर झुकाए ही चली गई वापस

पता नहीं क्या माँग रही थी वह मुझसे
ईश्वर को कुछ सुनाई तो देता नहीं
मेरे हाथ में कुछ होता
तो सब उसकी इच्छा पूरी करने में
लगा देता, उसके लिए मेरी हालत
तुमसे ज़्यादा किसे पता होगी,
आँसू बहाते हुए जब मैं कहता निर्धन सही
सवर्ण होता, उसे पा तो लेता, तुम कहते
जात-पात तो ईश्वर की मर्जी है

ईश्वर होकर मैंने देखा, जात-पात
किसी ईश्वर की मर्जी नहीं,
किसी ईश्वर ने नहीं कहा
जात-पात अच्छी चीज है, ईश्वर तो
जात-पात के बारे में जानते तक नहीं
जब मैं नया-नया ईश्वर होकर पहुँचा
मुझसे किसी ने पूछा तक नहीं
मैं किस जात का हूँ, या तुम्हें किस ने
ईश्वर बना दिया, दलित भी कहीं
ईश्वर होता है, चला छुओ मत हमें

तुम तीनों तो दारू पीना ही भूल गए
और मैं हूँ कि गटागट पिए जा रहा हूँ
लगता है तुम्हारे हिस्से की भी आज मैं ही
पी जाऊँगा, लाओ सिगरेट का कश लगवाओ,
नहीं नहीं ऐसा करो नई सिगरेट दो मुझे
आज अकेले मैं पूरी सिगरेट पिऊँगा
दोस्त होकर तुमने मुझसे जात-पात
नहीं की तो क्या तुम्हारे घर के लोगों ने
मुझसे भेदभाव करने का कोई मौक़ा
नहीं छोड़ा तुम्हारे लड़ने के बाद भी,
वे चाहते थे जब मैं तुम्हारे घर आऊँ
नहीं माँगूँ उनसे पीने के लिए पानी
कभी खाने की नौबत आ गई तो
उन्होंने ये जताने का मौका नहीं चूका
मैं उनके यहाँ, साथ बैठकर खा रहा हूँ
उनकी कोशिश रही, हो सके तो मैं
अपनी झूठी थाली रखूँ धोकर,

उन्हें मेरा ईश्वर होना पता चले आज भी
वे मुझसे मेरे पिता के नाम से
फलाँ का लड़का कहकर न पुकारें
फलां जात का ईश्वर कहकर बुलायें
जैसे कोई बाप ही न हो मेरा
मेरी छोटी जाति ही हो मेरा बाप
अपने नाम पर जात-पात देखकर,
मेरी रीढ़ में भी होने लगता है कंपन
ईश्वर हुआ तो कम से कम मेरे अंदर
चमत्कार करने की इतनी क्षमता तो
चाहिये थी होनी, पलक झपकते ही
खत्म कर देता इसे, किसी ईश्वर ने
बिना ताकत इसे मिटाने की कोशिश
की तो ईश्वर का मिटना तय है,
जात-पात उसे ही मिटा डालेगी
(6)
क्या-क्या नहीं हो रहा मेरे नाम पर
सब झूठ बोल रहे हैं कोई नहीं कहता
जाओ भाइयो अपना काम देखो जाकर
सब तुम्हें बेवकूफ बना रहे हैं
तुम्हें देने के लिये ईश्वर के पास,
कुछ भी नहीं, हमारे पास भी नहीं

कोई नहीं कहता सब बराबर हैं
मानने वालों की संख्या कम होने से
कोई पहचान छोटी नहीं हो जाती, फिर
ईश्वर की ज़रूरत क्या हैं, ईश्वर के बिना
रहा नहीं जाता तुमसे जैसे
माँ ने नहीं, ईश्वर ने पैदा किया हो

किस कदर पैसा आता है मेरे नाम
सब का सब चोरी से कमाया,
तुम सबका गला काटकर बनाया
कोई नहीं पूछता मेरे नाम पर जो
हुंडिया चढ़ा रहे हैं लोग वो उन्होंने
कैसे कमाई हैं, काली कमाई न चढ़े
तो जिन जगहों में मैं रहता हूँ वहाँ
बिजली का बिल भी न भर पाए
चढ़ रही है मुझे, ज़्यादा बोल रहा हूँ
लुढ़क जाऊँ तो मुझे जहाँ से आया हूँ
वहीं छोड़ आना, ईश्वर होने के बाद

अब मैं किसी काम का नहीं, नहीं गया
तो मुझे यहाँ-वहाँ ढोते फिरोगे
अब मैं ईश्वर होने से पहले जो था
वह नहीं हो सकता, कुछ ईश्वरों ने
कोशिश की भी वापस दुनिया में
लौटने की तो नहीं हो सके सफल,
एक बार ईश्वर हो गये तो हो गये
अब जिंदगी भर ईश्वर होकर जियो
ईश्वर होकर मर तो सकते नहीं

इन बेवकूफों को क्या हुआ चाँद पर
राकेट भेजते हैं और उसकी प्रतिकृति
मेरे चरणों में चढ़ाने चले आते हैं
उनके काम से मेरा कुछ लेना नही
तब भी इसका श्रेय मेरी झोली में
एक यही तो रहा जो लगातार मुझे
चुनौती देता हुआ बढ़ता रहा आगे
ये महाशय उसे भी मेरे क़दमों में
डालने पर उतारू हैं, जैसे यान में
हर बार पलीता मैं ही लगाता होऊँ
मुझे चुनौती देना पसंद है, जो मुझ
निष्क्रिय को चुनौती देता है, वह
आगे बढ़ता है, काश कि मैं खुद को
चुनौती दे पाता, इस ईश्वर होने से
अपना पीछा छुड़ाकर भाग पाता

मर्जी तो यह है मेरी सब खूब काम करें
जमकर दारू पिएँ, दाल-रोटी खाएँ,
मिल-जुल कर रहें, मेरी जगह किताबों को
समय दें, मुझे जरा भी घास न डालें न ही
अपना करा-धरा मेरे नाम पर न थोपें,

मुझे दिनों से पीने को मिली नहीं,
तो ज़्यादा पी ली है मैने मगर यह सच है कि
मेरा ईश्वर होना किसी काम का नहीं
यह मुझसे बेहतर कौन जानता होगा
मेहनत से कमाने-खाने वाले, दोस्तो !
खुद पर भरोसा करने वाले, साथियो !
मुझे कतई भाव न देने वाले, मनुष्यो !
मैं सच कह रहा हूँ, मुझ पर यकीन करो।