एक दिन फिर बात करते-करते वह अचानक बोल उठी
अच्छा छोड़ो ये किताब, ये कविता
मेरी बात सुनो तुमनें कभी ये सोचा
तुमसे दूर जब मैं अपने घर में अकेली होती हूँ
देख पाने की तो छोड़ो तुमसे बात तक नही कर पाती हूँ
तब मैं घर में अकेली पड़ी-पड़ी क्या सोचती हूँ तुम्हारे बारें में
एक बार फिर अपनें हाथों सिर दबाते हुए मैं बोला
अच्छा थोड़ी सांस लेने दो बताता हूँ
मुझसे दूर रहते हुए तुम क्या सोचती हो मेरे बारे में
हूँ शायद तुम यह सोचती हो मेरे बारें में
घर में दरवाज़े पर भीतर से कुंडी की तरह चढ़ी हूँ
और इधर वो पट्ठा किसी चौराहे पर
किसी गोल गप्पे के ठेले की तरह आती-जाती
छप्पन छुरियों को लुभा रहा होगा या तय हो गया होगा
तो शाम को नमकीन-सिगरेट के साथ
दोस्तों के बीच बोतल की तरह खुलने के
स्वप्न बुन रहा होगा कहीं बैठा-बैठा
कुछ नहीं रात को लौटेगा पीकर फिर फोन की
घंटियां पर घंटियां बजाएगा लुच्चा कहीं का
हूँ ठीक है और बताओं और क्या सोचती हूँ तुम्हारे बारें में
और क्या ये क्या सोचती होगी यही कि
पुरुष की जात तो वैसे भी कुत्ते की होती है
कहीं और भी तो नही उलझा जैसे मुझसे बनाता है
उससे भी बना रहा हो बातें
या फिर घर में ही चिपका पड़ा हो अपनी उस नापसंद से
साला जब घर में होता है कितना सीधा बनकर रहता है
जब इतना ही डरता है उससे तो मुझसे बोलता क्यों है
अकेले उसके ही पैर क्यों नही दबाता
वह ठहाका लगाते हुए बोली हां और
कुछ नहीं और क्या सोचती होगी, सोचती होगी घर में
हमेशा ही तरह खा रहा होगा उसके जूते
और मिलने पर जब मैं पूछूंगी तो सीधा बनते हुए कहेगा
नही यार ऐसी कोई बात नही
सिर्फ खराब ही क्यों अच्छा भी तो सोचती होऊंगी?
मैं तुम्हारे बारे में ज़रा वो भी तो बताओ,
मैं बोला अच्छा तो,शायद फिर ये सोचती होगी,नही यार
मेरा जानू बिलकुल भी ऐसा नही है
वो कहीं कुछ पढ़ रहा होगा या निपटा रहा होगा घर के काम
या टीवी देखतें हुए मुझे याद कर रहा होगा
या अलमारी के आगे खड़ा होकर मुझसे मिलनें
पहनकर आने वाली ड्रेस तय कर रहा होगा
या अकेले में अपने कमरे में मुझे उधेड़बुन रहा होगा
कहीं हताश होकर मुझे भूलनें की तो नही सोचने लगा
बहुत देर से कोई एसएमएस भी नही आया उसका
ऐसा ही सोचती हो न तुम मेरे बारे में
वह फिर जोर से हंसी लेकिन इस हंसी में
मैंने गेहूँ में कंकर सी उसकी उदासी पिसी देखी
वह बोली मैं तुमसे झूठ नही बोलूंगी अभी तुमनें जो भी कहा है
मैं यह सब सोचती हूँ मगर एक बात और जो मैं सोचती हूँ
जो मुझे रन्दे-सी लगातार छीलती रहती है भीतर से
वो तुम क्यों नही बता रहे हो मुझे
उसे क्यों छुपा रहे हो, क्यों चुरा रहे हो नज़रें
कहो और हमेशा की तरह अपनी आँखों में आँसू भरकर कहो
कहो कि जब मैं तुमसे दूर होती हूँ,
इन सब बातों से ज्यादा ये बात और भी बेचैनी से सोचती हूँ
काश, तुम शादी-शुदा नहीं होते !
पवन करण
(अस्पताल के बाहर टेलीफोन काव्य संग्रह से)
अच्छा छोड़ो ये किताब, ये कविता
मेरी बात सुनो तुमनें कभी ये सोचा
तुमसे दूर जब मैं अपने घर में अकेली होती हूँ
देख पाने की तो छोड़ो तुमसे बात तक नही कर पाती हूँ
तब मैं घर में अकेली पड़ी-पड़ी क्या सोचती हूँ तुम्हारे बारें में
एक बार फिर अपनें हाथों सिर दबाते हुए मैं बोला
अच्छा थोड़ी सांस लेने दो बताता हूँ
मुझसे दूर रहते हुए तुम क्या सोचती हो मेरे बारे में
हूँ शायद तुम यह सोचती हो मेरे बारें में
घर में दरवाज़े पर भीतर से कुंडी की तरह चढ़ी हूँ
और इधर वो पट्ठा किसी चौराहे पर
किसी गोल गप्पे के ठेले की तरह आती-जाती
छप्पन छुरियों को लुभा रहा होगा या तय हो गया होगा
तो शाम को नमकीन-सिगरेट के साथ
दोस्तों के बीच बोतल की तरह खुलने के
स्वप्न बुन रहा होगा कहीं बैठा-बैठा
कुछ नहीं रात को लौटेगा पीकर फिर फोन की
घंटियां पर घंटियां बजाएगा लुच्चा कहीं का
हूँ ठीक है और बताओं और क्या सोचती हूँ तुम्हारे बारें में
और क्या ये क्या सोचती होगी यही कि
पुरुष की जात तो वैसे भी कुत्ते की होती है
कहीं और भी तो नही उलझा जैसे मुझसे बनाता है
उससे भी बना रहा हो बातें
या फिर घर में ही चिपका पड़ा हो अपनी उस नापसंद से
साला जब घर में होता है कितना सीधा बनकर रहता है
जब इतना ही डरता है उससे तो मुझसे बोलता क्यों है
अकेले उसके ही पैर क्यों नही दबाता
वह ठहाका लगाते हुए बोली हां और
कुछ नहीं और क्या सोचती होगी, सोचती होगी घर में
हमेशा ही तरह खा रहा होगा उसके जूते
और मिलने पर जब मैं पूछूंगी तो सीधा बनते हुए कहेगा
नही यार ऐसी कोई बात नही
सिर्फ खराब ही क्यों अच्छा भी तो सोचती होऊंगी?
मैं तुम्हारे बारे में ज़रा वो भी तो बताओ,
मैं बोला अच्छा तो,शायद फिर ये सोचती होगी,नही यार
मेरा जानू बिलकुल भी ऐसा नही है
वो कहीं कुछ पढ़ रहा होगा या निपटा रहा होगा घर के काम
या टीवी देखतें हुए मुझे याद कर रहा होगा
या अलमारी के आगे खड़ा होकर मुझसे मिलनें
पहनकर आने वाली ड्रेस तय कर रहा होगा
या अकेले में अपने कमरे में मुझे उधेड़बुन रहा होगा
कहीं हताश होकर मुझे भूलनें की तो नही सोचने लगा
बहुत देर से कोई एसएमएस भी नही आया उसका
ऐसा ही सोचती हो न तुम मेरे बारे में
वह फिर जोर से हंसी लेकिन इस हंसी में
मैंने गेहूँ में कंकर सी उसकी उदासी पिसी देखी
वह बोली मैं तुमसे झूठ नही बोलूंगी अभी तुमनें जो भी कहा है
मैं यह सब सोचती हूँ मगर एक बात और जो मैं सोचती हूँ
जो मुझे रन्दे-सी लगातार छीलती रहती है भीतर से
वो तुम क्यों नही बता रहे हो मुझे
उसे क्यों छुपा रहे हो, क्यों चुरा रहे हो नज़रें
कहो और हमेशा की तरह अपनी आँखों में आँसू भरकर कहो
कहो कि जब मैं तुमसे दूर होती हूँ,
इन सब बातों से ज्यादा ये बात और भी बेचैनी से सोचती हूँ
काश, तुम शादी-शुदा नहीं होते !
पवन करण
(अस्पताल के बाहर टेलीफोन काव्य संग्रह से)