Saturday, January 18, 2014

पैसे के बारे मे एक महत्वकांक्षी कविता के लिए नोट्स



पैसे के बारे मे एक महत्वकांक्षी कविता के लिए नोट्स



मै पैसे नही कमाता
जब बहुत खुश होता हूं, तब भी
कोई योजना नहीं बनाता
बस तृप्ति जी के पास जा कर कुछ शुरुआती बातें करता हूं

पैसे कमाना एक एक अद्भुत बात है
न कमाना उससे भी ज्यादा
आप अगर पैसे नही कमाते
तो यह कुछ-कुछ ऐसा है
कि आप जेम्स वाट है
और रेल का इंजन नही बना रहे
यह दुनिया से विश्वासघात जैसी कोई चीज़ है

अक्सर नहीं,
लगभग हमेशा मैं पैसों के बारें मे सोचता हूं
इस सोचने में और भी कई चीजें साथ-साथ सोची जाती रहती हैं
मसलन, पैसे न कमाना
या थोडे से पैसे कमाना और उन्हे खाने बैठ जाना- आगे और न कमाना;
पुराने, जिनका शरीर आदी है, ऐसे कपडे पहन कर किसी पुरानी, जो होते-होते
घर जैसी हो गई है, ऐसी सार्वजनिक जगह पर निकल जाना
एक शहर मे बरसों रहते हुए भी राशन कार्ड न बनवाना, फोन न लगवाना;
सालों पुराने दोस्तों से बार-बार ऐसे मिलना ज्यों आज ही मिले हैं
और यूं विदा होना ज्यों  मिलना बाकी रह गया हो;
औरतों को देखकर सिमट जाना-खुलेआम जनाना होना ;
हिंसा का उचक-उचक कर प्रदर्शन न करना- मर्दानगी पर शर्म खाना ;
अश्लील चुटकुलों पर खिसिया जाना, उनका फेमिनिस्ट विश्लेषण करना ;
राजनीति वालों पर, उनके घोटालों पर बहस न करना;
गंभीर, उलट-पलट कर देने वाली मुद्राओं पर ठठा कर हंस पडना;
और खूबसूरत कमाऊ आदमी के पाद पर आनंदित हो उठना
लगता है, ये सारी चीजें एक साथ होती हैं
पैसे न कमान इन सबसे मिल कर बनता है
कभी कभी यूं भी सोचता हूं
कि बस पैसे कमाना एक काम रहता तो कितना सुख होता
चलते-चलते अचानक भय से न घिर जाते
चौराहों पर खडे रास्ते ही न पूछते रहते
अपने साथ लंबी-लंबी बैठकों में अपने ही ऊपर मुकदमे न चलाते
अच्छे-बुरे और सही-गलत की माथा पच्ची न होती
कैसे भी बनिए के साथ ठाठ से रह लेते- यूं मिनट-मिनट सिहर न उठते
सुंदर लडकियों के लिए सडकों और पार्कों की खाक न छानते फिरते
झोपडपट्टियों में झांक-झांक कर्फ न देखते, कि क्या चल रहा है
बडे नितंब वाले मर्दो को देख बेकली न होती-
फसक्कडा मार कहीं भी बैठ जाते
और मजे से गोश्त के फूलने का इंतजार करते
दुनिया मे पायदारी आती
और धन्नो का पांव धमक-धमक उठता
एक दिन देखा कि सारे विचार और सारी धाराएं
तमाम मान उद्देश्य और सारे मुक्तकारी दर्शन
दिल्ली के बॉर्डर पर खडे हैं
यूं कि जैसे ढेर सारे बिहारी और पहाडी और अगडम-सगडम मद्रासी
हाजत की फरागत मे पैसा-पैसा बतियातें हों

तब तो जिगर को मुट्ठी में कस कर सोचा,
कि शुरु से ही पैसा कमाने मे लग जाते
आज इस सीन से भी बचते

लेकिन हाय, सोचने से पैसे को कुछ नही होता
न वह बनता है, न बिगडता है
कितने ही सोचते बैठे रहे और सोचते-सोचते ही उठ कर चले गए
हमारे पूज्य पिता जी के पूज्य पिता जी कहा करते थे
कि उनके पूज्य पिता जी ने उन्हें बताया था
कि पैसे को एक बेकली चाहिए
जैसी लैला के लिए मजनूं और शीरीं जे लिए फरहाद को थी
लेकिन इधर हमारे छोटू ने बताना शुरु किया है कि नहीं
इसके लिए, जैसा कि शिव खेडा
और दीपक चोपडा बताते हैं- मन और आत्मा की शांति चाहिए
और उसमे योगा बहुत मुफीद है
उसका कहना है
सोचना पैसे को रुकावट देता है
और इस रुकावट के लिए आपको खेद होना चाहिए
क्योंकि आप अगर सोचने से खारिज हो जाएं
तो फिर सारा सोचना पैसा खुद ही कर ले
कि उसके घर सोचने की एक स्वचलित मशीन है

और पीढियों के इस टकराव में- जिसमें मेरी कोई ‘से’ नहीं
इधर कुछ ऐसा भी सुनने मे आया है
कि जिनके पास पैसा है, दरअसल उनके पास इतना पैसा है
कि कुछ दिनों बाद वे उसे बांटते फिरेंगे
कि जिस तरह आज हम गैर-पैसा लोग
अपनी बहानेबाजियों और चकमों-चालाकियों से
दुनिया की नाक में दम रखते हैं
उसी तरह  वे जरा-जरा सी बात पर
बेसिर-पैर के बहानों के सहारे
बोरा-बोरा भर पैसा आपके ऊपर पटक भाग जाया करेंगे
कि जिस तरह हमारे चोर पैसे की बेकली में रात-दिन मारे-मारे फिरते हैं
उसी तरह से वे चोरी-चोरी आएंगे और
आपकी रसाई में पैसे फेंक कर गायब हो जाएंगे
मै कहता हूँ कि हाय, तब तो पैसे कमाना कोई काम ही न होगा
तो वे बताते हैं कि नहीं भाया
तब हमें खर्च करने मे जुटना होगा
और उसके लिए भी वैसी ही बेकली चाहिए
जैसी मजनूं को लैला के लिए और फरहाद को शीरीं के लिए थी

( और हां, जिस दिन मैं यह कविता पूरी लिखूंगा
अपने पिता के बारे में भी लिखूंगा  जिनका न जाने
कितना तो कर्ज़ मुझे ही चुकता करना है! )

चेतन क्रांति