Sunday, August 28, 2011

मैने नही दिया उपहार मे शब्दकोश

हो सकते है थोडे से

पुष्प की पंखुडियों जितने

या फिर अनगिनत

किसी महल मे लगे पत्थरों जितने

शब्द-तुम्हारे और मेरे बीच

नही बनता पुष्प

न ही महल

ऐसे अर्थहीन शब्दों का हम क्या करें

इसी कारण

मैने नही दिया उपहार मे शब्दकोश तुम्हे

इसी कारण

मै लौट आता हूँ बहुत बार

अबोला तुम्हारे आँगन से....।

(मालचंद तिवाडी)

सादग़ी

बरसों बीत गये रहते पर सलीका नही

आया यहाँ का

शरीफ़ो के बीच रुक नही पायी सीने में

मोहल्ला भर हँसी

आवारा खाँसी

आया ही नही इस तरह बैठना कि

कपडों मे सिलवट न पडे

सध न सकी

सबके स्वागत मे मुस्कान

व्यर्थ हो गई भावुक न होने की कोशिश

अभी भी

सादे पानी के बस मे है प्यास

रोटी के बस मे भूख

आत्मीयता के बस मे सम्बंध

आऊटडेटेड होना उसके लिए

सांसो जितना जरुरी है

वह खुश है अपने होनें मे

इस तरह....।

विनय विश्वास

(जब यह कविता मैने पढी तब लगा था कि कवि ने टैलीपेथी से जैसे मेरे मन की बात पकड कर लिखा हो...मेरा किरदार बिलकुल ऐसा ही है...)

मुसलमान लडके

धरती पर गिर कर कलदार की तरह टन्न से बजने वाले

कई मुसलमान लडके मेरे पक्के दोस्त हैं

कई तो इतने कि उनसे किसी बात पर

मेरा आज तक अबोला नही हुआ

बाबरी मस्जिद ढहा दी गई तब भी

और हाल में मुसकमानों को जिन्दा जलाया गया तब भी

हिन्दू होने से पहले जैसे एक लडका हूँ मैं

शरारती,बदमाश और हँसोड

मुसलमान होने से पहले वे भी लडके हैं

और बिलकुल मेरे ही जैसे शातिर

भले ही उनमें भी मेरे जैसी शरारतें कूट-कूट कर भरी हों

मगर यह अहसास कि वें मुसलमान हैं

उन्हें हमेशा डसता ही रहता है

जिसे रहते हुए उनके साथ, मै बेहद करीब से

देखता हूँ छूकर, जबकि मुझे कभी-कभार ही

ख़ुद को याद दिलाना पडता है मैं हिन्दू हूँ

इसके बावजूद कि इस बीच मुझे बार-बार

अपना हिन्दू होना और उसे गर्व से कहना याद दिलाया गया है

मैं महसूस करता हूँ कि आँधी इस बीच

अपने साथ बहुत कुछ ले गई उडाकर

इस बीच हम में से कई हिन्दू लडके पक्के हिन्दू हो गए

और कई मुसलमान लडके पक्के मुसलमान

लेकिन वे इस अँधड में भी मेरे पक्के मित्र बने रहे तो बने रहे

वे मेरे मित्र बने रहे इस वजह से मैं यह जान सका

उन शरारतियों को मेरी तरह जीने के लिए

अपना मुसलमान होना कहाँ-कहाँ नही छिपाना पडता है

ठीक उसी तरह हिन्दू लडकियाँ उन्हे बहुत पसन्द आती हैं

जैसे मुझे इतराकर देखतीं मुसलमान लडकियाँ

लेकिन उन्हे पटाने के मामले में मुझमें और उनमें

एक अंतर साफ है मुझे मुसलमान लडकियों के सामने

अपना हिन्दू होना छुपाना नही पडता

जबकि उन्हें हिन्दू लडकियों के आगे खुद की

पहचान छिपानी पडती है

और जब तक वे उनके बारे मे जान पाती हैं

देर हो चुकी होती है,सच तो ये है कि मेरे मुसलमान दोस्तों ने

जितनी भी हिन्दू लडकियाँ पटाईं,शुरु में उन्होने

किसी को ये नही बताया कि वे कौन है

कई दफे अतिवादी पैरोकार ये जाने बिना कि मेरे साथ

जो मित्र खडा है वह मुसलमान है

मुसलमानों को शुरु कर देते है गालियाँ देना

दोगलेपन की कोई सीमा नही इनकी

विश्वास तो इन पर सूत बराबर नही

यह भी कोई बात हुई

खाओं यहाँ के और बजाओं वहाँ की

उस समय ये मेरे मुसलमान मित्र लडके

धरे रहते है धीरज़,नही करते कोई बहस

उठकर चल देते है चुपचाप,वे इस बारे में

मुझसे भी नही करते कोई बात

लेकिन उस वक्त मैं उनकी आँखो की नमी

अपनी आंखो मे शिद्दत से करता हूँ महसूस

एक बात जो मुझे अच्छी लगती है,मुसलमान लडके

अपढ,निर्धन और निराश होने के बाद भी

दिमाग़ और देह की दृष्टि से पक्के होते हैं

वे मेरे साथ बढ-चढ कर लेते है खेलों मे हिस्सा

मेरी तरह उनकी तेज़ गेंदें पलक झपकते ही

उडा देती है सामने वाले खिलाडी के स्टम्प

किसी जादूगर की तरह उनके भी हाथों की हाँकियाँ

गेंद को नचाते हुए आगे बढती है

और पडोसी गोलची को छकाते हुए कर आती है गोल

यही समय होता है जब ये मेरे मित्र लडके

उन्हे मुसलमानों की जगह खिलाडियों की तरह आते है नज़र

उस वक्त वे उन्हें देखकर कह भी देते हैं

हमे फलाँ खिलाडी जैसे मुसलमान लडके चाहिए

एक बात मैने बारीकी से पकडी

मेरे मुसलमान दोस्त हिन्दू लडकों की तरह

अपने धर्म के बारे मे नही करते ज्यादा बात

मै उनके भीतर संकोच उगा देखता हूँ

जबकि एक मै हूँ मौका मिलते ही

चबड-चबड किए बिना नही मानता

वे डरतें है अपने धर्म की कहने पर पर कहीं

उन्हें पक्का मुसलमान न मान लिया जाए

जबकि उनमें से अधिकतर मेरी तरह हैं

जैसे मै पूजा पाठ नहीं करता

वे भी रोजे वगैरह के चक्कर मे नही पडते

मुसलमान लडके जो मेरे खरे दोस्त है

उनके चेहरों पर छाया स्थायी सूनापन देखकर

हमेशा लगता है कि मेरे अंतरंग होने के बाद भी

ये मुझसे नही कहते मन की

नही दिखाते मुझे अपना रंज खोलकर

फिर ये अपने मन की किससे कहते होंगे

क्या ये मुसलमानों के बीच कहते होंगे सब

बिछाते होंगे अपनो के सामने अपना दुख,

डरता हूँ,ऐसा न हो, अपना दुख कहते-कहते

अपने लोगों के फन्दों मे उसकी तरह से न उलझ जाएं वे

जैसे मुझे हिन्दू को अपने जाल में फाँसने

नाना प्रकार के ताने बुन रहे है मेरे लोग...।

(पवन करण-अस्पताल के बाहर टेलीफोन,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली)

Friday, August 26, 2011

टेलीफोन

नदियों से बातें करना चाहता हूँ इस समय

पर टेलीफोन पर यह मुमकिन नही

उन दरख्तों का भी मेरे पास कोई नम्बर नही

जो रास्तों मे मिले थे

परिन्दों के पास कोई मोबाईल लोगा

इसकी कोई उम्मीद नही

जिनसे बतियाने की इच्छा होती है

उनके पास तक जाना पडता है हर बार

यह टेलीफोन फिर किस मर्ज़ की दवा है!

काम आता नही छदाम भर

और कमबख्त बज़ने लगता है वक्त बेवक्त

उस पर तुर्रा यह कि

जैसे ही उठाकर कहिए...हैलो!

सामने की आवाज़ कहती है

रांग नम्बर!
(राजेश जोशी)

Wednesday, August 17, 2011

निदा फ़ाज़ली: कुछ बेहतरीन कलाम

सोचने बैठे जब भी उसको

अपनी ही तस्वीर बना दी

ढूँढ के तुझ में,तुझको हमने

दुनिया तेरी शान बढा दी

****

मन बैरागी,तन अनुरागी,कदम-कदम दुशवारी है

जीवन जीना सहल न जानो बहुत बडी फनकारी है

औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में

कुछ लोगो का सीधापन है,कुछ अपनी अय्यारी है

जो चेहरा देखा वह तोडा,नगर-नगर वीरान किए

पहले औरों से नाखुश थे अब खुद से बेजारी है।

****

इतनी पी जाओं

कि कमरे की सियह खामोशी

इससे पहले कि कोई बात करे

तेज़ नोकीले सवालात करे

इतनी पी जाओ कि दीवारों के बेरंग निशान

इससे पहले कि

कोई रुप भरें

माँ बहन की तस्वीर करें

मुल्क तक़्सीम करें

इससे पहले कि उठे दीवारें

खुन से माँग भरें तलवारें

यूँ गिरो टूट के बिस्तर पे अँधेरा खो जाए

जब खुले आँख सवेरा हो जाए

इतनी पी जाओ!


Tuesday, August 16, 2011

कतरन

ये मंजर सियासी खतरनाक है

ये सारी फिज़ा ही खतरनाक है

मेरे ऐब को भी बताए हुनर

मेरे यार तु भी खतरनाक है

बुरे लोग दूनिया का खतरा नही

शरीफो की चुप्पी खतरनाक है...(पवन दीक्षित)

अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाएं

जिसकी खुशबु से महक उठे पडोसी का भी घर

फूल इस किस्म का हर सिम्त मे खिलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर असर कुछ ऐसा

मैं रहूँ भूखा तुझसे भी न खाया जाए

जिस्म दो ले के भी दिल एक हो अपने ऐसे

मेरा आँसू तेरी पलको से उठाया जाए...(गोपालदासनीरज़)

कल थी,

कठिन राहें,चिलचिलाती धूप

और तुम्हारी छाया

अब सिर्फ

तुम्हारी याद,मन की टीस

और,तुम्हारा साया

फिर कल

तुम्हारी आस,तुम्हारे स्वप्न

और,हमारी आरजू

फिर एक बार

होंगे हम सब एक साथ

(संकलित)

सज़ा

हम यों जीते हैं

जीना भी खता हो जैसे

ज़िन्दगी सिर्फ गुनाहों की सज़ा हो जैसे

मेरी खुंशिया छीनकर हवा ले गई मस्तानी

जीवन की स्थिर मंजिल पर

सिर्फ उदासी छोड गई है

चाहा था फूलों का सौरभ

पर कांटो ने उलझाया है

कलियां मेरे उपवन का रिश्ता

पतझड से जोड गई है

तेरी यादों से जो दूर रहूँ

क्या बचेगा मेरे जीवन मे

मेरी हर सांस तुझसे जिंदा है

वरना क्या है मेरी धडकन में....? (संकलित)

Monday, August 15, 2011

एक अभिभाषक के बारे में

एक हाथ मे आदमी का कटा हुआ सिर

और दूसरे में नोटो का भरा हुआ झोला

वकील साहब के लेकर चले आइए आप,क्या मज़ाल

जो फिर कानून के हाथों आपका बाल बाँका भी हो जाए

वकील साहब का इतना नाम यों ही तो नही आखिर

मंत्री-संत्री की तो औकात क्या उनसे मिलने

मुख्यमंत्री तक को लेना पडता है समय

न्यायाधीश के पद को कई दफे मार चूके वे ठोकर

यह उनकी ख्याति है कि अपराधी के दिमाग में

सबसे पहले जो नाम होता है वह उनका होता है

मगर उठाईगीरों के साथ-साथ खासे सूरमा भी

उन्हें अपना केस लडने को तैयार करने से पहले

उनके दफ्तर की देहरी चढते हुए सौ बार सोचते हैं

कई न्यायाधीश उन्हें काला कोट पहने

जिरह करने आते देख अपने कोर्ट में उनके सम्मान में

उठकर हो जाते है खडे और उनसे नही करते

बिना सर कहे बातचीत,कई तो उनके शिष्यों में से

जज बने बैठे है आखिर इन नए-नए जजों की

उनके अनुभव और वरिष्ठता के सामने क्या गणना

कई प्रकरणों के फैसले तो वे अपने प्रभाव से ही

इन न्यायाधीशों से अपने पक्ष मे करवा लेते हैं

उन्हें उस अभियुक्त से मिलकर खुशी नही होती

जो रिरियाते हुई कहता है मुझे झूठा फँसाया गया है

वकील साहब मुझे बचाइए मैंने कोई अपराध नही किया

उसे बचाने की तो वकील साहब की इच्छा ही नहीं होती

वकील साहब को तो वह अपराधी पसंद है जो

छाती ठोककर हँसते हुए उनके सामने कहता है

हाँ साहब,अपराध मैंने किया है

अब यह आपके उपर है कि आप मुझे किस तरह बचाते हैं

आप तो ये बोलो नोट कितने लगेंगे

आपकी जेबें नोटों की गड्डियों से भरी हों तो भी क्या

यह ज़रुरी नहीं कि एक हवाई जहाज़ से

दूसरे हवाई जहाज़,एक शहर से दूसरे शहर

यात्राओं पर रहते वकील साहब आपको घास डाल ही दें

आपके तीसमार खाँ बने रहने के बावजूद ले ही लें,आपका केस

लक्ष्मी की कोई कमी तो बची नहीं उनके पास

वे अपने दफ्तर के दरवाज़े की तो छोडिए

घर के रौशनदान से भी बाहर झाँके तो उन्हें वहाँ भी

एक अभियुक्त अपनी पीठ पर नोंटो से भरा झोला टाँगे मिलेगा खडा

वह दिन उस न्यायपालिका के लिए बडा दिन होता है

जिस दिन वकील साहब जिस शहर मे होते है

जैसे आज वे अपने शहर में ही हैं

अलग-अलग प्रकरणों मे करनी हैं आज उनको बहस

एक प्रकरण में हत्यारे के खिलाफ चश्मदीद

गवाहों को ही संदेह के घेरे में लाते हुए कर देना है उन्हें

बचकर भागने के लिए मजबूर

बलात्कार से क्षत-विक्षत एक स्त्री को ही

करना है बदचलन घोषित और

नोंटो की गड्डियों पर नंगे होकर नाचते एक नामचीन को

कानून के फँदे से निष्कलंक निकालकर लाना है बाहर

और हर शाम की तरह आज शाम भी

लगभग थूकने के अन्दाज़ मे अपने घर की

अलमारी मे पटकते हुए नोंटो की गड्डियाँ

हम प्याला साथिय़ों के बीच मारते हुए आँख कहना है

न्याय को उँगलियों पर नचाना चाहते हो

तो उस पर संदेह पैदा करते हुए

उसे कठघरे मे खडा करना सीखो।

पवन करण- (अस्पताल के बाहर टेलीफोन)

राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली

दो कविताएं

एक

जाने क्या-क्या दे डाला हैं

यूं तो तुमको सपनों में

मेंहदी हसन,फरीद खानम

की गज़लो की कुछ कैसेट

उडिया कॉटन का इक कुर्ता

सादा,बिल्कुल तुम्हारे जैसा

डेनिम की पतलून जिसे तुम

कभी नही पहना करते

लुंगी,गमछा,चादर दर्री

खादी का एक मोटा शॉल

जाने क्या-क्या...!

आँखे खुली हैं

सोच रहा हूँ

गुजरे ख्वाब

दबी हुई ख्वाहिश है शायद

ये नज़्म तुम्हें जो भेज रहा हूँ

ख्वाहिश की कतरन है केवल...।

दो

मैने फोन किया जिस लम्हा

बडी खुशी से चौके थे तुम

खनक भरी आवाज़ तुम्हारी

पहले जैसी ही थी...

लेकिन,

अब के उसमे साज़ घुले थे

एक सांस में

कहा था तुमने

अभी-अभी बस

यादों के कुछ वरक खुले तो

सोचा तुम्हें खत भी लिख लूँ

जिसमें जगह-जगह पर तुम हो

उसी अधूरे खत के ऊपर

यकीं करो ऐ दोस्त!

अभी भी कलम धरी है

व्हॉट ए नाइस टेलीपेथी?

लेकिन अरसा गुज़रा

अब तक

उस खत का कुछ अता-पता नही हैं...।

(आलोक श्रीवास्तव)

अब भी लिखते हो प्रेम कविताएं?

कह कर फिर मिलेंगे चली गयी

लगता है सदियों से खडा हूँ वही

जहाँ से चली गयी थी वह

मैने कहा- ज़िन्दगी प्यार हैं

तुमने सुधारा-नही प्यार ज़िन्दगी हैं

फिर ज़िन्दगी क्या हैं-मैने पूछा

उत्तर मे बडी-बडी आँखें

इंडिया गेट के चबूतरे पर बैठे

देर रात तक यूँ ही कुछ-कुछ बतियाते

लगता है करेंगे हम नया कुछ शुरु

पुरानी यादों को फिर-फिर दुहराते

डुबते सूरज के साथ

क्यों खींच रही हो मेरी तस्वीर

तुम मुस्कायी और क्लिक कर दिया

कहते हुए-अच्छी आयेंगी तस्वीर

अब भी लिखतें हो प्रेम कविताएं?

वर्षो बाद मिलने पर पूछा तुमने

लिखूंगा....

पर तब तक दूर जा चुकी थी तुम

ज्ञान बघारते हुए मैने कहा

स्थिर पानी सड जाता है

तुमने पूछा और स्थिर प्यार

बैठे थे साथ-साथ

लिए हाथों में हाथ

टुटा एक तारा ठीक हमारे सामने

कहीं पुरी न हो जाए कामना

हमनें कुछ नही मांगा इस डर से

किया है ऐसा मैने अक्सर

तुम्हारी याद आने पर

तुम्हें फोन किया,तुम्हारी आवाज़ सुनी

और बिना कुछ कहे

रख दिया रिसीवर

खानें की मेज़ पर साथ बैठें सब

हाथ छुरी-कांटे पर

पांव तुम्हारे पांव पर

आनंद इस छुअन का ही जीभ पर

शादी की दावत उडाते

आता है ध्यान अचानक

क्या तुम अब भी नांचते वक्त

बगल मे खोजती होगी मुझको

सिनेमाघर के अन्धेरों में

अंगुलियों के पोरो से झरता

परस्पर इनकार,मनुहार,प्यार

फिल्म या कहानी अब तो

कुछ भी नही याद

कल्याण और यथार्थ का अंतर

हो उठता है कितना जानलेवा जब

ढुंडता हूँ अपनी चाहत तुम में

मै...

तुम्हारे जाने के बाद जो भी कुछ आता हैं

मेरे दिल में

आता है तुम्हारी शक्ल मे ढलकर...।

(उपेन्द्र कुमार,कादम्बिनी जून,2001 में प्रकाशित कविता..जो मेरी अत्यंत प्रिय है उन दिनों मै बीए सैकिंड इयर का छात्र था)