बरसों बीत गये रहते पर सलीका नही
आया यहाँ का
शरीफ़ो के बीच रुक नही पायी सीने में
मोहल्ला भर हँसी
आवारा खाँसी
आया ही नही इस तरह बैठना कि
कपडों मे सिलवट न पडे
सध न सकी
सबके स्वागत मे मुस्कान
व्यर्थ हो गई भावुक न होने की कोशिश
अभी भी
सादे पानी के बस मे है प्यास
रोटी के बस मे भूख
आत्मीयता के बस मे सम्बंध
आऊटडेटेड होना उसके लिए
सांसो जितना जरुरी है
वह खुश है अपने होनें मे
इस तरह....।
विनय विश्वास
(जब यह कविता मैने पढी तब लगा था कि कवि ने टैलीपेथी से जैसे मेरे मन की बात पकड कर लिखा हो...मेरा किरदार बिलकुल ऐसा ही है...)
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