Sunday, August 28, 2011

सादग़ी

बरसों बीत गये रहते पर सलीका नही

आया यहाँ का

शरीफ़ो के बीच रुक नही पायी सीने में

मोहल्ला भर हँसी

आवारा खाँसी

आया ही नही इस तरह बैठना कि

कपडों मे सिलवट न पडे

सध न सकी

सबके स्वागत मे मुस्कान

व्यर्थ हो गई भावुक न होने की कोशिश

अभी भी

सादे पानी के बस मे है प्यास

रोटी के बस मे भूख

आत्मीयता के बस मे सम्बंध

आऊटडेटेड होना उसके लिए

सांसो जितना जरुरी है

वह खुश है अपने होनें मे

इस तरह....।

विनय विश्वास

(जब यह कविता मैने पढी तब लगा था कि कवि ने टैलीपेथी से जैसे मेरे मन की बात पकड कर लिखा हो...मेरा किरदार बिलकुल ऐसा ही है...)

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