Monday, August 15, 2011

दो कविताएं

एक

जाने क्या-क्या दे डाला हैं

यूं तो तुमको सपनों में

मेंहदी हसन,फरीद खानम

की गज़लो की कुछ कैसेट

उडिया कॉटन का इक कुर्ता

सादा,बिल्कुल तुम्हारे जैसा

डेनिम की पतलून जिसे तुम

कभी नही पहना करते

लुंगी,गमछा,चादर दर्री

खादी का एक मोटा शॉल

जाने क्या-क्या...!

आँखे खुली हैं

सोच रहा हूँ

गुजरे ख्वाब

दबी हुई ख्वाहिश है शायद

ये नज़्म तुम्हें जो भेज रहा हूँ

ख्वाहिश की कतरन है केवल...।

दो

मैने फोन किया जिस लम्हा

बडी खुशी से चौके थे तुम

खनक भरी आवाज़ तुम्हारी

पहले जैसी ही थी...

लेकिन,

अब के उसमे साज़ घुले थे

एक सांस में

कहा था तुमने

अभी-अभी बस

यादों के कुछ वरक खुले तो

सोचा तुम्हें खत भी लिख लूँ

जिसमें जगह-जगह पर तुम हो

उसी अधूरे खत के ऊपर

यकीं करो ऐ दोस्त!

अभी भी कलम धरी है

व्हॉट ए नाइस टेलीपेथी?

लेकिन अरसा गुज़रा

अब तक

उस खत का कुछ अता-पता नही हैं...।

(आलोक श्रीवास्तव)

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