Friday, August 26, 2011

टेलीफोन

नदियों से बातें करना चाहता हूँ इस समय

पर टेलीफोन पर यह मुमकिन नही

उन दरख्तों का भी मेरे पास कोई नम्बर नही

जो रास्तों मे मिले थे

परिन्दों के पास कोई मोबाईल लोगा

इसकी कोई उम्मीद नही

जिनसे बतियाने की इच्छा होती है

उनके पास तक जाना पडता है हर बार

यह टेलीफोन फिर किस मर्ज़ की दवा है!

काम आता नही छदाम भर

और कमबख्त बज़ने लगता है वक्त बेवक्त

उस पर तुर्रा यह कि

जैसे ही उठाकर कहिए...हैलो!

सामने की आवाज़ कहती है

रांग नम्बर!
(राजेश जोशी)

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