Monday, August 15, 2011

अब भी लिखते हो प्रेम कविताएं?

कह कर फिर मिलेंगे चली गयी

लगता है सदियों से खडा हूँ वही

जहाँ से चली गयी थी वह

मैने कहा- ज़िन्दगी प्यार हैं

तुमने सुधारा-नही प्यार ज़िन्दगी हैं

फिर ज़िन्दगी क्या हैं-मैने पूछा

उत्तर मे बडी-बडी आँखें

इंडिया गेट के चबूतरे पर बैठे

देर रात तक यूँ ही कुछ-कुछ बतियाते

लगता है करेंगे हम नया कुछ शुरु

पुरानी यादों को फिर-फिर दुहराते

डुबते सूरज के साथ

क्यों खींच रही हो मेरी तस्वीर

तुम मुस्कायी और क्लिक कर दिया

कहते हुए-अच्छी आयेंगी तस्वीर

अब भी लिखतें हो प्रेम कविताएं?

वर्षो बाद मिलने पर पूछा तुमने

लिखूंगा....

पर तब तक दूर जा चुकी थी तुम

ज्ञान बघारते हुए मैने कहा

स्थिर पानी सड जाता है

तुमने पूछा और स्थिर प्यार

बैठे थे साथ-साथ

लिए हाथों में हाथ

टुटा एक तारा ठीक हमारे सामने

कहीं पुरी न हो जाए कामना

हमनें कुछ नही मांगा इस डर से

किया है ऐसा मैने अक्सर

तुम्हारी याद आने पर

तुम्हें फोन किया,तुम्हारी आवाज़ सुनी

और बिना कुछ कहे

रख दिया रिसीवर

खानें की मेज़ पर साथ बैठें सब

हाथ छुरी-कांटे पर

पांव तुम्हारे पांव पर

आनंद इस छुअन का ही जीभ पर

शादी की दावत उडाते

आता है ध्यान अचानक

क्या तुम अब भी नांचते वक्त

बगल मे खोजती होगी मुझको

सिनेमाघर के अन्धेरों में

अंगुलियों के पोरो से झरता

परस्पर इनकार,मनुहार,प्यार

फिल्म या कहानी अब तो

कुछ भी नही याद

कल्याण और यथार्थ का अंतर

हो उठता है कितना जानलेवा जब

ढुंडता हूँ अपनी चाहत तुम में

मै...

तुम्हारे जाने के बाद जो भी कुछ आता हैं

मेरे दिल में

आता है तुम्हारी शक्ल मे ढलकर...।

(उपेन्द्र कुमार,कादम्बिनी जून,2001 में प्रकाशित कविता..जो मेरी अत्यंत प्रिय है उन दिनों मै बीए सैकिंड इयर का छात्र था)

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